लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।
हिंदी का बौद्धिक वर्ग इतना लिजलिजा, रीढ़-विहीन और कमजोर क्यों है?
हाल ही में एक घटना ने मेरे मन मे यह सवाल उठाया है कि हिंदी का बौद्धिक वर्ग इतना लिजलिजा, रीढ़-विहीन और कमजोर क्यों है? वजह चित्रा मुद्गल का भाजपा के बचाव में दिया बयान है।
इसके प्रथम दृष्टया निम्न कारण दिखते हैं-
1-वर्ण-जाति का कवच
हिंदी के बौद्धिक वर्ग का सबसे पहला कवच वर्ण- जाति का है, कुछ चंद अपवादस्वरूप बुद्धिजीवियों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश बुद्धिजीवी जाति के कवच से बाहर नहीं निकल पाते हैं। जातीय संस्कार, परवरिश और अनौपचारिक-औपचारिक शिक्षा उन्हें वर्ण-जाति के दायरे में इस कदर जकड़ लेती है कि वे आजीवन जाति-वर्ण के कवच को तोड़कर बाहर नहीं निकल पाते। दुनिया को देखने-समझने का उनका विश्व दृष्टिकोण वर्ण-जातिवादी (ब्राह्मणवादी) ही बना रहता है यानि वैदिक हिंदूवादी।
औरों की कौन कहे, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, के. दामोदरन, सुमित सरकार और अयोध्या सिंह जैसे शीर्षस्थ वामपंथी भी इस कवच को पूरी तरह से तोड़ नहीं पाए। उदारवादियों और दक्षिण पंथियों की बात ही छोड़ दीजिए।
अकारण नहीं है कि नेहरू से लेकर चेतन भगत तक, अपरकॉस्ट बुद्धिजीवी लेखक तथाकथित मेरिट का तर्क देकर उस आरक्षण के खिलाफ जहर उगलते रहे और अभी भी उगल रहे हैं, जिसे संवैधानिक आरक्षण कहते हैं और जिसका प्रावधान सौ प्रतिशत वैदिक आरक्षण को तोड़ने के लिए किया गया था और है।
2-धर्म का कवच
हिंदी के बौद्धिक वर्ग के मानस के निर्माण में वेद, उपनिषद, गीता और रामचरित मानस का अहम योगदान है। जिन्हें आज हम हिंदू ग्रंथ कहते हैं। इन ग्रंथों से बना मानस न केवल वर्ण-जाति के कवच में बंद रहता है, वह हिंदू धर्म के कवच में भी बंद रहता है। जो इसे वर्ण-जाति और जातिवादी पितृसत्ता को जायज ठहराने का तर्क मुहैया कराते हैं। जो उन्हें संवेदनहीन और वैचारिक तौर पर दिवालिया बना देता है और हर तरह के कुकर्म को जायज ठहराने का औचित्य प्रदान करता है और अक्सर सिद्धांत और व्यवहार में समता, स्वतंत्रता, बंधुता और लोकतांत्रिक एवं वैज्ञानिक मूल्यों का विरोधी बना देता और आचरण में पांखडी।
3- वर्ण-जातिवादी पितृसत्ता का कवच
हिंदी का बुद्धिजीवी वर्ण-जाति के कवच की तरह ही पितृसत्ता के कवच में भी जकड़ा हुआ है। भारत की पितृसत्ता सामान्य पितृसत्ता नहीं हैं, वर्ण-जातिवादी पितृसत्ता है। वैचारिक और व्यवहारिक जीवन में स्त्री के प्रति उसका नजरिया जग-जाहिर है। वह स्वीकार नहीं कर पाता कि स्त्री जीवन के अधिकार सभी क्षेत्रों में उसके बराबर है और उसे प्रेम करने जीवन-साथी चुनने और अपने अनुकूल पेशा चुनने पूरा अधिकार है।
4-रक्त-वीर्य संबंधों का कवच
हिंदी के बुद्धिजीवी रक्त-वीर्य संबंधों के कवच में भी बंद हैं। इसका नमूना देखना है, तो विश्वविद्यालयों और अन्य बौद्धिक संस्थानों में हिंदू बुद्धिजीवियों के भाई-बंधुओं, बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों और पत्नी-पति और अन्य सगे संबंधियों की उपस्थिति के रूप में देख सकते हैं।
मेरे पास गोरखपुर विश्वविद्यालय का वर्षों का अनुभव है। कैसे इस विश्वविद्यालय और इससे जुड़े महाविद्यालयों को तथाकथित प्रोफेसरों-आचार्यों ने अपने अयोग्य बेटे-बेटियों, बाई-बंधुओं और पत्नी आदि के लिए रोजी-रोटी का अड्डा बना दिया।
यही हाल कमोवेश अन्य विश्वविद्यालयों और उच्च संस्थानों का भी है।
इस खेल में विद्या निवास मिश्र से लेकर नामवर सिंह तक कैसे शामिल रहे हैं, इसका कच्चा-चिट्ठा कई बार समाने आ चुका है। बयान करने की कोई जरूरत नहीं है। इन नियुक्ति-पदोन्नतियों में जाति और रक्त-वीर्य संबंधों का खेल किस तरह से खेला जाता रहा है और खेला जा रहा है, जग-जाहिर है। अधिकांश बौद्धिक संस्थानों का यही हाल है।
5- कैरियरिज्म और अवसरवाद का मेल
हिंदी के अधिकांश बुद्धिजीवी के केंद्र में सामाजिक सरोकार या देश या राष्ट्र का निर्माण नहीं होता या सच्चे ज्ञान की तलाश नहीं होती है। यह प्रवृत्ति 1990 के दशक के बाद और तेज हुई है। उनके ज्ञान-विज्ञान के केंद्र में कैरियर यानि पद- प्रतिष्ठा होती है और पुरस्कार होता है। इसके लिए वे अवसरवाद का हर खेल-खेलने को तैयार रहते हैं। इसके लिए वे विचार को वस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं और अवसरानुकूल वस्त्र पहन लेते हैं। अवसरवाद हिंदी बुद्धिजीवियों की सहज-स्वाभाविक खूबी है। पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लिए हर जोड़-तोड़ करने के लिए वे हमेशा तैयार रहते हैं।
6- साहस का घोर अभाव
हिंदी के अधिकांश बुद्धिजीवियों में साहस का घोर अभाव है, वे वर्चस्व के विभिन्न रूपों को खुली चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाते हैं, जिसमें सत्ता को चुनौती देना भी शामिल है। वे बुद्धिजीवी के रूप में सच कहने के लिए बड़ा जोखिम उठाने को तैयार नहीं रहते हैं, वे कुछ भी दांव पर नहीं लगाना चाहते हैं। वे खोने के डर और पाने के लालच में सत्य से मुंह मोड़े रहते हैं। वे चाहते हैं कि वे पूरी तरह सुरक्षित भी बने रहें और बुद्धिजीवी भी कहलाएं।
अकारण नहीं कि हिंदू पट्टी, जिसे गाय पट्टी भी कहते हैं, आज भी मुख्यत: बर्बर मध्यकालीन मूल्यों-मान्यताओं में जी रही है और आज तक इसका लोकतांत्रिकरण- जनवादीकरण भी नहीं हो पाया। इसमें हिंदी के बुद्धिजीवियों के चरित्र की अहम भूमिका है।
यहां रेखांकित कर लेना जरूरी है कि हिंदी के बौद्धिक वर्ग का आज भी पर्याय मुख्यत: अपरकॉस्ट के सामाजिक समूह से आए लोग हैं। बौद्धिक नियंत्रण और संचालन के सभी केंद्रों पर इन्हीं का नियंत्रण और वर्चस्व है। मुस्लिम और ईसाई समाज के बुद्धिजीवी के रूप में भी, उनके बीच के अपरकॉस्ट का ही अभी भी वर्चस्व हैं। उनके बीच के पसमांदा समूह के बुद्धिजीवियों की उपस्थिति अंगुलियों पर गिनी जा सकती है।
पिछड़े-दलितों-आदिवासियों और पसमांदा मुसलमानों के समूह से आए हिंदी के चंद बुद्धिजीवियों की उर्जा का बड़ा हिस्सा अपरकॉस्ट वर्चस्व के प्रतिवाद और प्रतिरोध में खर्च हो जा रहा है और कुछ ने अपरकॉस्ट के सामने पूरी तरह समर्पण भी कर रखा है।