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जब मैंने गोयल साहेब की टिप्पणी को पढ़ा तो मैंने भी उनसे सजता से एक सवाल किया, ‘ सर! बुरा न मानें, आपके जैसे खुले दिमाग का आदमी जब खुद को ही सवालों के दायरे में ले आता है, तो हैरत भी होती है, और दुख भी…..सभी भारतीय जातियों को उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण दिए जाने की अपील भी कीजिये न सरकार से.’ यहाँ एक बात का खुलासा करना जरूरी है कि मैं और अशोक जी भारतीय स्टेट बैंक से ही कार्य निवृत्त हुए हैं किंतु हमारा साक्षात्कार फेसबुक के जरिए ही हुआ है, ऐसा मुझे लगता है. मेरी जितनी उम्र में याददास्त भी तो कम हो जाती है न. किंतु गोयल जी के बारे में इतना तो कहूँगा ही कि वो अक्सर खुले दिमाग से काम लेते हैं किंतु दुख जब होता है कि वो भीड़तंत्र का हिस्सा बनकर अपने ही मन को मारकर हिन्दूवादी कट्टर मानसिकता का शिकार हो जाते हैं.
मेरी टिप्पणी के जवाब में गोयल जी सवाल करते हैं, ‘क्या आरक्षण ज़रूरी है? कितने अन्य देशों में है? क्या अन्य देशों में ग़रीब, तथाकथित कुचला वर्ग नहीं है?’ इस सवाल के जवाब में मैंने उन्हें ये लिंक भेजा, ‘ Ashok Kumar Goyal ji please take a reference to it ….https://hindi.firstpost.com/…/reservation-is-in-many…HINDI.FIRSTPOST.COM जिसमें कहा गया है, ’आरक्षण पर प्रगतिशील बनिए… अमेरिका से सीख लेनी चाहिए.’ विदित हो कि अमेरिका में रिज़र्वेशन सिस्टम को अफरमेटिव ऐक्शन कहते हैं. वहां नस्लीय रूप से भेदभाव झेलने वाले समूहों को कई जगह बराबर प्रतिनिधित्व के लिए अतिरिक्त नंबर दिए जाते हैं.
पोस्ट में कहा गया है कि पिछले दिनों दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले एक नेता का वीडियो वायरल हो गया, जिसमें वो जाति प्रथा की शुरुआत के पीछे एक नेता को जिम्मेदार बताते हैं जिसका नाम लेने से वो बचते दिखे. ज्यादातर लोगों ने माना कि वो नेता जी इशारों-इशारों में डॉ अंबेडकर की बात कर रहे हैं. हालांकि बाद में सफाई आई कि ये इशारा दरअसल वीपी सिंह और मंडल कमीशन के लिए था. ये तर्क भी तो गले नहीं उतरता है. क्योंकि कोई भी नहीं मानेगा कि भारत में जाति प्रथा की शुरुआत 1990 के दशक में हुई. यह तो हजारों साल पहले की बीमारी है.
यह भी कि इस तरह के बयान कोई नई बात नहीं हैं. कैमरे पर भले ही ऐसी बातें कम सुनने को मिलती हों, लेकिन आम ज़िंदगी में अंबेडकर को आरक्षण और जाति वैमनस्य के लिए दोष देने वाले लोग कम नहीं हैं. ऐसी बातों में एक और तर्क होता है कि भारत के सरकारी सिस्टम के पिछड़े होने की बड़ी वजह आरक्षण है, अमेरिका जैसे देश हमसे आगे हैं क्योंकि वहां रिजर्वेशन नहीं होता. … ऐसी बातें करने वालों को चाहिए कि पहले वो अपने ज्ञान को अंतर्राष्टीय स्तर पर परखें फिर कुछ बोलने का साहस करें. वो नहीं जानते कि अलग-अलग देशों में अलग-अलग नाम से आरक्षण की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है. उनको चाहिए कि वो अम्बेडकर और जाति की बात करने से पहले भौगोलिक सामाजिक स्थितियों के रूबरू होलें. अमेरिका, कनाडा, चीन, फिनलैंड, जर्मनी, इज़रायल और जापान जैसे प्रगतिशील अनेक देशों में अलग-अलग तरीकों से आरक्षण मौजूद है. इन नियमों में हर देश की परिस्थिति के चलते कई अंतर भी हैं, ये अलग बात है क्योंकि हरेक देश की सामाजिक , राजनीतिक , धार्मिक और व्यावसायिक स्थिती अलग-अलग होती है.
पोस्ट में आगे कहा गया है कि आरक्षण की पेचीदगियों को छोड़िए, वापस आते हैं हिंदुस्तान में होने वाले जाति भेदभाव
पर आज के शहरी या अर्धशहरी भारत में किसी से पूछिए कि क्या वो जाति में यकीन रखता है…बिना सोचे समझे उसका जवाब होगा… नहीं. इसके समर्थन में लोग अक्सर एक साथ बैठकर खाना खाने का तर्क देते हैं. ये भी कहते हैं कि हमने कभी सामने वाले-वाली का सरनेम भी नहीं पूछा….किंतु मेरा अनुभव कहता है कि ये सब बातें सत्य से परे की हैं. सच तो ये है कि हमें समता, समानता और बन्धुत्व की वकालत करने की मिध्या आदत सी पड़ गई है. हमारे आचरण और बयानों में जमीन और आसमान का अंतर होता है.
दफ्तरों में जो बराबरी का आलम देखने को मिलता है वो इसलिए नहीं कि जाति-भेद समाप्ती की ओर है, अपितु दफ्तरों की ये प्रगतिशीलता जाति से ज्यादा आर्थिक बराबरी के कारण दिखाई देती है. एक दफ्तर में काम करने वाले लोग अमूमन एक जैसे स्तर के थोड़ा ही ऊपर-नीचे होते हैं. एक जैसी जीवनचर्या, रहन-सहन के चलते एक दूसरे के साथ खाना-पीना कोई बड़ी बात नहीं है….कई मायनों में ये मजबूरी भी है. मगर अरेंज मैरिज जैसे मामलों में ऐसी प्रगतिशीलता शायद ही कभी देखने को मिलती हो. कई सारे प्राइवेट सेक्टरों में उच्च जातियों की अधिकता है, इनमें से ज्यादतर लोग जब किसी नए व्यक्ति का काम के लिए रेफरेंस देते हैं, तो अधिक संभावना होती है कि वो सवर्ण जाति समूह से हो. ऐसा जानबूझ कर न भी किया जाता हो तो फिर भी होता ही है. जिसके चलते बिना चाहे भी एक समूह को ज्यादा मौकै मिलते हैं.
उल्लेखनीय है कि रिज़र्वेशन का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी आपत्ति सरकारी नौकरियों पर होती है… राजनीति में आरक्षण पर नहीं. जबकि आज के समय में सरकारी नौकरियों पर तो मोदी सरकार पालथी मारकर बैठी है. निजी क्षेत्रों की व्यावसायिक इकाईयों को बल प्रदान किया जा रहा है जो अक्सर ठेका-आधार पर कर्मचारियों की भर्ती करते हैं. न केवल इतना वो संस्थान सरकार द्वारा तय वेतन तक भी नहीं देते. ऐसे में आरक्षण के खिलाफ बगावत करना, कितना तर्कसंगत है, ये विरोधी ही सोचें. दूसरे, समूचे समाज में देश की 85% जनता को केवल 50% प्रतिशत का आरक्षण तय है, इसके विपरीत देश की 15% जनता के लिए भी 50%….. इस व्यवस्था को कैसे न्याय संगत ठहराया जा सकता है? कहना अतिशयोक्ति न होगा कि रिजर्वेशन वास्तव में जैसा है और इसे जैसे पेश किया जाता है, इसमें में बड़ा फर्क है. आरक्षण का विरोध करने वाले राजनीति से ज्यादा अक्सर जाति के दंभ के जरिए सियासत करते हैं.
भारत में जाति-प्रथा हमेशा से क्रूर तरीके से बनी आ रही है…. आज भी वैसे ही है. राजनीति बेशक जाति-प्रथा के कम हो जाने का ढोल पीटती रहे किंतु वास्तविक जीवन में जाति-प्रथा आज भी बदस्तूर बरकरार है. अखबारों के स्थानीय पन्नों में छपने वाले ‘दलित को घोड़ी चढ़ने पर पीटा’ जैसे समाचार छोड़ दीजिए, सोशल मीडिया पर दलित प्रतीकों की ट्रोलिंग इस सत्य के प्रमाण हैं. फ़िर अनुसूचित जातियों/जन जातियों के आरक्षण पर आपत्ति क्यों? आपत्ति तो इस बात पर होनी चाहिए कि भारतीय समाज की 15% आबादी को 50% आरक्षण क्यों? होना तो ये चाहिए कि भारतीय समाज की तमाम जातियों को उनकी संख्या के आधार पर सरकारी नौकरियों में ही नहीं, अपितु हरेक क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाना चाहिए जिससे ये रोज-रोज का आरक्षण विलाप शायद बन्द हो जाए.
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