लोक सभा चुनाव के बाद श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने फिर सरकार बना ली है. यह चुनाव भाजपा की भारी जीत के साथ- साथ बेहद महंगे चुनाव अभियान के कारण भी चर्चा में रहा. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चुनाव खर्च कम कर देश के नागरिकों की मूलभूत आश्यकताओं के लिए बजट बढ़ाया जाए, ताकि उनका जीवन स्तर सुधरे? क्या जल संकट, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा की उपलब्धता और गुणवत्ता में सुधार करना सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है? दूसरी चिंताजनक खबर हजारों ईवीएम मशीनों के गायब होने की है. जो निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाती है.
जहां तक सामाजिक सौहार्द का प्रश्न है चुनाव परिणाम आने के एक दिन पूर्व 22 मई को सोशल मीडिया पर डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या का मामला प्रकाश में आया. मुंबई के एक अस्पताल में एमडी कर रही 26 वर्षीय पायल को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने वालों में सीनियर महिला डाक्टरों के नाम प्रकाश में आए हैं. अल्का वर्मा की पोस्ट के मुताबिक ये नाम हैं डॉ. हेमा आहूजा, डॉ. भक्ति और डॉ. अंकिता खण्डेलवाल. इन्होंने पायल के लिए व्हाटसअप पर लिखा था ‘तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्ल नहीं होती … तू आरक्षण के कारण यहां आई है, तेरी औकात है क्या, हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की?.. तुम किसी भी मरीज को हाथ मत लगाया कर मरीज अपवित्र हो जाएंगे, तू आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी ….”
यह आत्महत्या हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला और मुथू कृष्णन, सर्वानन जैसों की याद दिलाता है. जतिघृणा के हमलावर जाति सूचक शब्दावाण सीधे सीने पर लग रहे हैं. एक वीडियो बीच चुनाव आया, जिसमें एक युवती अपने सहकर्मियों के बीच बैठी चमार जाति के लोगों को गालियां दे रही है. वो कहती है “यार साला चमार पैदा होना चाहिए था गवर्मेंट जॉब तो मिल जाती एटलिस्ट. चमारों को सिर पर बिठा लिया जनरल वालों को नीचे कर दिया. चमार चमार होते हैं, उनकी कोई औकात नहीं होती है.”
जब यह वीडियो वायरल हुआ तो भारी प्रतिक्रिया हुई. एससी एसटी मुकदमा दायर किया गया. मशहूर गीतकार जावेद अख्तर ने ट्विट किया ‘यह कौन बुरी औरत बोल रही है? क्या इसे अभी गिरफ्तार नहीं किया क्या?
जब चारो ओर से दबाव बढ़ा तो वह महिला फिर से सामने आई. डॉ. अम्बेडकर, गांधी और शहीद भगतसिंह के चित्रों के सामने बैठ कर बोली मैं और मेरे साथी एससी/एसटी और ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं इसलिए मुझे माफ कर दिया जाए.
हाल ही में बदायूं से राधेश्याम जी का फोन आया बोले- ‘बेचैन जी एक समस्या आ गई है. पुत्रवधू सिविल की तैयारी के लिए आपकी यूनिवर्सिटी के पास कोचिंग ले रही है. वहां गैरकौम की लड़कियां उसे परेशान कर रही हैं. वे उसके बाथरुम में स्कैच से लिख देती हैं कि ‘यह तो चमारी है. बहू ने फोटो खींच कर भेजा है. मैंने कहा मेरे पास भिजवा दो. मैंने एक वकील से बात की तो उसने कहा इसे तो एससी/एसटी एक्ट में केस दर्ज करा दो. क्या हमें भूल जाना चाहिए कि झारखण्ड के सिमडेगा जिले की 11 वर्षीय संतोष की मौत भूख के कारण हुई थी. उसने भात मांगते-मांगते दम तोड़ा था. राजनेताओं के अंधाधुंध खर्चे स्वतंत्रता सेनानियों की सादगी की परवाह नहीं कर रहे.
दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामाजिक सौहार्द समाप्त कर रही हैं. ताजा वाकया राजस्थान के अलवर जिले का है. जहां एक युवक के सामने ही उसकी पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. ऐसे अत्याचार तो अमेरिकी अफ्रीकी गोरे भी अश्वेत दासों के साथ नहीं करते थे. बल्कि कालांतर में पचास फीसद गोरे ही कालों की गुलामी के विरोध में खड़े हो गए और दासप्रथा को समाप्त कर दिया.
दलितों के प्रति सवर्ण हिन्दुओं की बढ़ती जाति अनुदारता काबिले फिक्र होती जा रही हैं. यह संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक कायदे कानून को धता बता कर जातिभेदी परंपराओं से संचालित हो रही हैं. अब इससे बड़ी क्रूरता और क्या होगी कि ऊंची जाति के लोगों के सामने खाना खाने पर दलित को पीट कर मार डाला गया.’ देहरादून से आई खबर ने जाति मानस का कैसा खुलासा किया?
27 साल का यह दलित युवक अपने रिश्तेदार की शादी में गया था. वहां सवर्ण खाना खा रहे थे. पास ही कुर्सी पर बैठ कर वह दलित भी खाना खाने लगा. इसे एक सवर्ण ने दलित द्वारा बराबरी करना माना उसने दलित को जाति सूचक गालियां देते हुए तुरंत कुर्सी से नीचे उतरने के लिए कहा. उतरने में बिलम्ब देख कर दलित पर हमला कर दिया. उस समय उपस्थित लोगों ने उसे बचा दिया परन्तु जब वह वापस अपने घर लौटा तो उसे रास्ते में घेर कर मारा पीटा जिससे उसे गम्भीर चोटें आईं और अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई. यह घटना बताती है कि भारतीय समाज में जाति अनुदारता अमानवीय हद तक उग्र हो चुकी है. भारत में अस्पृश्यता अमरीका अफ्रीका की गुलाम प्रथा से अधिक अमानवीय है.
हमारे देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक हो गया, पर दलित दमन और बढ़ गया. अस्पृश्यता रूप बदल कर आज भी जारी है. हम उन देशों से भी प्रेरणा नहीं लेते, जिन्होंने जातिभेद की तरह नस्लभेद और रंगभेद को समाप्त कर दिया. हमारे यहां संविधान सम्मत व्यवहार नहीं हो रहा. जबकि आवश्यकता इस बात की है कि लोगों की सामाजिक शिक्षा सकारात्मक और संविधान सम्मत हो. छात्रों को संविधान की मूलभूत शिक्षा अवश्य पढ़ाई जानी चाहिए. समता भाव जगाने वाली फिल्मों, कविताओं, कहानियों, चित्रकला, गीत, संगीत, नृत्य आदि को विशेष प्रोत्साहन देना चाहिए. दलित आदिवासियों के साहित्य इस दिशा में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं.
अध्ययन बताता है कि दास प्रथा केवल दासों के प्रयासों से समाप्त नहीं हुई. उसमें स्वामी वर्ग का भी योगदान था. दरअसल गोरे स्वामियों का एक बड़ा हिस्सा दास प्रथा के विरोध में खड़ा हो गया था. पचास फीसदी गोरे लोग कालों की गुलामी के विरोध में खड़े हो गए और दास प्रथा को उन्होंने समाप्त कर दिया. यही नहीं, अमेरिका ने उसके बाद कला, मीडिया, उद्योग, शिक्षा, साहित्य जैसे सभी क्षेत्रों में अफर्मेटिव एक्शन के तहत दलितों की भागीदारी सुनिश्चित कर और काम करने के अवसर देकर अपने देश को महाशक्ति बना दिया.
दूसरी ओर, हमारे देश में दलितों और आदिवासियों को सेवाओं से बाहर रखने के लिए ही नए-नए तरीके अपनाए गए, जिससे देश को उनकी सेवाओं का लाभ नहीं मिल सकता. हमारे नेता केवल राजनीति में ही रुचि लेते हैं, समाज सुधार की चिंता उन्हें नहीं होती. चूंकि समाज में, साहित्य में, शिक्षा में उच्च मानवीय आदर्श नहीं हैं, इसलिए ऐसे वर्णभेदी समाज से निकला नेता भी लोकतांत्रित समता भाव का विकास नहीं करना चाहता, वह समाज में मौजूद भेदभाव का केवल राजनीतिक लाभ लेना चाहता है.
- श्यौराज सिंह बेचैन
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