बहुजन समाज पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले किये जा रहे प्रबुद्ध वर्ग संगोष्ठी यानी ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर दलित-बहुजन समाज के एक तबके में काफी रोष है। सोशल मीडिया पर बसपा प्रमुख बहन मायावती को नसीहत देने वालों की भरमार लगी है। तमाम लोग यह बता रहे हैं कि ब्राह्मणों का सम्मेलन करने से बसपा को कोई फायदा नहीं होने वाला है और इससे बसपा के अपने आधार वोट बैंक का नुकसान होगा। बहुजन समाज के कुछ लोगों की यह चिंता समझ से परे है। दरअसल दलित-बहुजन समाज में ऐसे प्रतिक्रियावादी लोगों की भरमार हो गई है, जो बिना आगा-पीछा सोचे, बस फैसला सुनाने को बेचैन नजर आते हैं। और सोशल मीडिया ने उन्हें इसका हक दे ही दिया है।
लेकिन दलित-बहुजन समाज को यह सोचना होगा कि क्या इस तरह की प्रतिक्रिया जल्दबाजी में दी गई प्रतिक्रिया नहीं है? उन्हें यह समझना होगा कि जब भी चुनाव आते हैं या किसी राजनीतिक दल को जब भी किसी समाज को खुद से जोड़ना होता है, तो इस तरह की कवायद सभी करते हैं। यह कोई अनोखी घटना नहीं होती, बल्कि एक आम राजनैतिक प्रक्रिया होती है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुंभ के दौरान सफाईकर्मियों का पैर धोया, या जब अमित शाह किसी दलित के घर जाकर खाना खाते हुए नजर आते हैं तो क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि दोनों दलित समाज के हितैषी हो गए हैं? क्या यह मान लिया जाए कि प्रधानमंत्री मोदी वाल्मीकि समाज की सभी समस्याओं को दूर कर देंगे या अमित शाह दलित समाज के अधिकारों के लिए सड़क पर उतर कर आंदोलन करेंगे?
वाल्मीकि समाज का पैर धोने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने क्या उसके बाद उस समाज की खबर ली। क्या उसके बाद कभी उन्होंने यह ऐलान किया कि वह ऐसी व्यवस्था करेंगे जिससे वाल्मीकि समाज के किसी व्यक्ति को सीवर में मौत का सामना न करना पड़े। बिल्कुल नहीं। क्योंकि इस तरह की घटनाएं महज प्रतीक भर होती हैं और इनके सहारे तमाम दल और राजनेता खुद को सिर्फ उदार दिखाने की कोशिश करते हैं। और इन प्रतीकों का इस्तेमाल कर वोट के लिए ढोल बजाते फिरते हैं। यह बात उस समाज के वोटर भी समझते हैं इसलिए जब मोदी सफाईकर्मियों के पैर धोते हैं और अमित शाह और राहुल गांधी दलितों के घर खाना खाते हैं तो उनका सवर्ण समाज जाति और धर्म भ्रष्ट होने का रोना नहीं रोता।
ऐसे में बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर दलित-बहुजन समाज के एक तबके के भीतर मच रहा हो-हल्ला कहीं न कहीं बेमानी है। दलित-बहुजनों को समझना होगा कि सत्ता में आने के लिए सभी राजनैतिक दलों को हर जाति, धर्म और वर्ग का वोट चाहिए होता है। हर राजनीतिक दल इसके लिए प्रयास करता है और एक राजनैतिक दल होने के कारण बसपा इससे परे नहीं है। हर राजनीतिक दल में एससी-एसटी सेल होता है, जिसकी कमान पार्टी के दलित-आदिवासी समाज के नेताओं के पास रहती है और इससेल का दायित्व अपने समाज के वोटों को पार्टी के लिए संगठित करना है। बसपा में सतीश चंद्र मिश्रा भी ब्राह्मण चेहरे हैं, लंबे वक्त से बसपा से जुड़े हुए हैं और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं। निश्चित तौर पर उनकी जिम्मेदारी ब्राह्मण समाज के वोटों को बसपा के खेमे में लाने की है।
अगर उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले बहुजन समाज पार्टी सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में ब्राह्मण सम्मेलन कर रही है तो इसको लेकर हंगामे की कोई जरूरत नहीं दिखती है।कोई भी राजनीतिक दल तेरह प्रतिशत ब्राह्मण वोटों की अनदेखी करने का जोखिम नहीं लेगी।बहुजन समाज पार्टी लंबे समय से भाईचारा समितियां गठित करती रही है।जहां तक विचारधारा का सवाल है तोयहां दलित-बहुजन समाज को यह भी ध्यान देना होगा कि बसपा प्रमुख मायावती कभी भी हिन्दू धर्म के धार्मिक नेताओं के घरों और मठों के चक्कर नहीं लगाती हैं और अपनी विचारधारा पर कायम हैं। और क्या कोई भी यह दावे के साथ कह सकता है कि दलित समाज की सभी जातियां बसपा के समर्थन में खड़ी हैं, और अगर बसपा ब्राह्मण सम्मेलन नहीं करती तो सभी दलित और पिछड़े एकमुश्त होकर बसपा को जीताने के लिए एक हो जाते? संभवतः ऐसा दावा कोई भी नहीं कर सकता।
उत्तर प्रदेश का चुनाव देश का सबसे बड़ा चुनाव होता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरे भारत की राजनीतिक तस्वीर तय करती है। ऐसे में हर पार्टी विधानसभा चुनाव जीतने के लिए पूरा दम लगा रही है। ऐसे में अगर बहुजन समाज पार्टी अपनी राजनीतिक बिसात नहीं बिछाएगी तो निश्चित तौर पर पीछे रह जाएगी। और ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण समाज बसपा के टिकट पर चुनाव नहीं जीतता है। विधानसभा चुनाव के दौरान बहुजन समाज पार्टी अपने सर्वसमाज के फार्मूले पर चलते हुए हर जाति, धर्म और वर्ग को चुनावी मैदान में उतारती है। ब्राह्मण समाज भी इसमें से एक है। बसपा के टिकट पर 2007 में 41 ब्राह्मण विधायक जीत कर आए थे, आखिर इस तथ्य को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है। राजनीति संभावनाओं का खेल है और अगर बसपा 23 प्रतिशत दलित वोट और 13 प्रतिशत ब्राह्मण वोट को एक करने की संभावना के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी करने की राह तलाश रही है तो यह उसका हक है। और चुनावी नतीजों से पहले इस फैसले को गलत कह देना ज्यादती होग।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।