हमारा देश जाति प्रधान देश है. देश में 4 वर्ण हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में बंटा हुआ है. ब्राह्मण और क्षत्रिय सवर्ण यानी उच्च जाति के खुद को मानते हैं, जबकि शुद्र मतलब अनुसूचित जाति जनजाति यानी दलित समाज को ब्राह्मण व क्षत्रिय सबसे निम्न जाति के मानते हैं. सदियो से सवर्ण दलितों को समाज की मुख्यधारा के अलग-थलग किये हुए हैं. आजादी से पहले दलितों को शिक्षा के अधिकार के भी वंचित रखा गया था. ताकि दलितों में चेतना न पैदा हो और जीवन स्तर न सुधर सके. जमीन और अधिकारों से वंचित दलित समाज पूरी तरह से सवर्णों का गुलाम था. शुरूआती दौर में दलित समाज इस गुलामी को स्वीकार कर लिया था. उसे लगता था कि भगवान ने उन्हें सवर्णों की सेवा करने के लिए ही पैदा दिया है और सेवा करना ही उनका परम धर्म है. यदि भक्ति भाव के सवर्णों की सेवा नहीं किये तो भगवान उन्हें माफ़ नहीं करेगा और नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी. उस दौर में पंडितों ने अंधविश्वास का दलितों में इस तरह खौफ पैदा कर दिया था की दलित समाज हर कदम पर देवी देवताओं से डरते रहते थे. दलित समाज सपनों में भी नहीं सोच सकते थे कि उनसे कोई गलती हो, जिससे भगवान उनसे नाराज हो जाए.
लेकिन समय के साथ दलितों में चेतना आने लगी. जब हमारे देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठने लगी और देश के लोग आजादी के लिए क्रांति करने लगे तब दलित समाज में तेजी से जागरूकता आने लगी. क्योंकि शुरुआत में सवर्णों ने ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई. गुलाम दलित इस क्रांति के बारे सोचने लगा. उसने पाया कि सवर्ण इसलिए अंग्रेजों को भगाना चाहते है, क्योंकि सवर्णों का अधिकार छिन गया है. सवर्ण हम पर हुकूमत करते हैं और अंग्रेज सवर्णों पर. दलितों ने देखा कि जो सवर्ण अंग्रेजों की जी-हुजूरी करता है, उसकी हां में हां मिलाता है और उसके आदेशों का पालन करता है, उसे अंग्रेज ज्यादा महत्व देते हैं और सवर्ण अंग्रेज अधिकारियों तक पहुँच दिखाकर अपने से कमजोर सवर्ण पर हुकूमत करते हैं.
यहीं से दलित समाज में सत्ता के प्रति लालच पैदा हुआ. जो दलित बड़े जमींदार के घर गुलामी करता था, वह अपनी बस्ती में लोंगो के साथ दबंगई के साथ पेश आने लगा. बस्ती के अन्य दलितों ने जब उसकी दबंगई का विरोध नहीं किया तो वह खुद को शक्तिशाली मानने लगा और धीरे-धीरे वह अपनी दलित बस्ती में रहने वालों पर ही हुकूमत करने लगा. वह जो कहता, उसे बस्ती के लोग मानते. भले ही उसका फैसला गलत हो और उसे बस्ती के लोग धीरे-धीरे मुखिया कहने लगे. दलित बस्ती में मुखिया बनाये जाने की खबर मिलने पर पहले तो सवर्णों को बुरा लगा. उन्होंने समझ लिया कि दलित मुखिया के मन में सत्ता की लालच बढ़ रही है. पहले तो सवर्ण कुचलने का मन बना लिया. सवर्ण ने अपने पंडित मंत्री के सामने मन की इच्छा को जाहिर किया. यह सुनकर पंडित को भी बुरा लगा, लेकिन उसने अपनी कुटिल चाल चली. उसने जमींदार से कहा कि अब तो तुम्हें सत्ता करना और आसान हो गया. अब तुम्हें डराने के लिए दलितों की बस्ती में जाने की जरुरत नहीं पड़ेगी. अब तुम जो चाहोगे, वह अपनी हवेली पर ही दलित के साथ कर लोगे, क्योंकि तुम्हारा दलित गुलाम उनका मुखिया है और वे दलित जानते हैं कि उसपर तुम्हारा हाथ है. वह तुम्हारी मदद से उनके साथ कुछ भी कर सकता है. बस्ती के लोग मुखिया से नहीं, बल्कि तुमसे डर रहे हैं. तुम इस दलित मुखिया को अपना हथियार बना लो. इसे सत्ता का खून मुंह लग चुका है और बगैर तुम्हारी मदद के यह बस्ती में हुकूमत नहीं कर सकता है. इसलिए तुम जो चाहोगे, यह वही करेगा।
पंडित ने कहा, तुम उसे बुलाओ और बस्ती के लोगों पर हुकूमत करने का आरोप लगाकर उसे इतना डांटों की वह समझे कि उसने बड़ा पाप किया है. हुकूमत का हक़ सिर्फ तुम्हारा है. जब उसे यकीन हो जाएगा कि उसने पाप किया है तो उसे मेरे द्वारा बनाये फर्जी देवी देवताओं के नाराज़ होने और नर्क जाने का डर सताएगा. तुमसे तो डरते ही हैं कि छोटी छोटी बातों पर तुम चमड़ी उधेड़ने और जान लेने में पीछे नहीं हटोगे. बस काम आसान हो गया सत्ता करने का. जब मुखिया अपनी गलती की माफ़ी के लिये गिड़गिड़ाने लगे तो तुम पीठ पर हाथ रखकर पुचकार देना और उसे धीरे-धीरे छूट देते जाना, ताकि तुमसे मिली छूट का नाजायज फायदा बस्ती में उठाने लगे. जमीदार को यह बात अच्छी लगी. उसने ऐसा ही किया और मुखिया की मदद से वह बस्ती का मसीहा कहलाने लगा. जमीदार को इसका एक और फायदा मिला. धीरे-धीरे जमीदार एक दूसरे के खिलाफ जरुरत पड़ने पर दलितों का इस्तेमाल करने लगे और दलित मामूली सी सत्ता की चाहत में एक दूसरे से छोटा बड़ा, गरीब अमीर का फर्क करने लगे. सत्ता के साथ दलितों में जब आर्थिक मजबूती भी आने लगी तो सवर्ण इन्हें कई उपजातियों में बांट कर आपस में ही फुट पैदा कर दिए. दलितों में फुट जरूर पड़ी, लेकिन इनके अंदर एक दूसरे की बराबरी करने इच्छा भी बढ़ी. इसके लिये दलित ब्राह्मणों और जमीदारों को अपने घर बुलाने लगे. जिस घर ठाकुर साहब कुछ पल के लिये आ जाते थे, उसकी गांव में चर्चा होने लगती थी. अब सवर्ण इन उपजातियों के अंदर भाई भाई में झगड़े लगाकर मजे लेने लगे. बीसियों साल यह सब चला. जब आजादी की लड़ाई के दौरान दलितों को वोट का अधिकार मिला, तब सवर्णों को इसका सबसे बड़ा फायदा मिला. सवर्ण दलितों को जिसे वोट करने को बोलता, उसे दलित चुपचाप वोट करने लगे. इसके बदले सवर्ण कुछ उपहार आदि दे देते थे. सवर्ण के दिमाग में बैठ गया कि दलितों का अपना कोई वजूद नहीं है. इनके वोट का हम मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं.
देश आजाद हुआ, लेकिन संवैधानिक आजादी के बावजूद दलित आजाद नहीं हुए. इस शून्यता को भरने के लिए मान्यवर कांसीराम जी नौकरी छोड़कर आ गए. कांसीराम जी ने बाबा साहब के संवैधानिक आजादी को राजनितिक आजादी में तब्दील करने का काम किया. उन्होंने देश भर में भ्रमण किया और दलितों में राजनितिक अलख जगाई और देश के दलितों को राजनीतिक मंच देने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किये. परिणाम यह हुआ कि बसपा अपने पहले ही चुनाव में दर्जन भर से ज्यादा सीटें जीत कर सवर्णों को चौका दिया. दलित समाज में लगातार राजनितिक चेतना आती गई और अब देश का लगभग पूरा दलित समाज राजनीतिक तौर पर जागरूक हो चूका है. अपना अधिकार जानने लगा है. वोट देने से पहले पार्टी, प्रत्याशी और जाति देखने लगा है. जिसकी सवर्णों को उम्मीद नहीं थी. इसके लिए सवर्ण आज सबसे ज्यादा बाबा साहब को कोसते होंगे.
जब से मायावती जी ने दलितों का नेतृत्व संभाला है, तब से देश भर में जातीय समानता की लड़ाई भी शुरू हो गई है. दलित समाज निडर हो गया है. दलित एक ताकत के तौर पर उभरा है और इस ताकत को जोर जबरदस्ती से नहीं ख़त्म किया जा सकता है. इसीलिए सवर्ण नेता दलितों के इमोशन के साथ खेलने लगे. इस तरह इमोशन के खेलने का हमारे दलित नेताओं ने ही उन्हें मौका दिया. जब भी दलित वोटों की जरुरत पड़ती सवर्ण इन दलित चाटुकार नेताओं को बस्ती में भेजते रहे. जब भी कोई घटना होती है, दलित नेता नहीं आता है. यह भी कह सकते हैं कि सवर्ण नेता से दबे यह दलित नेताओ को रोक दिया जाता है. सवर्ण उनके घर आकर झूठी सांत्वना देकर इस्तेमाल करते रहे. लेकिन सवर्णों के इस झूठ का पर्दाफाँस भी होने लगा. दलित समझने लगा कि सवर्ण उनके घर सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाने आता है. जातिवाद और जातीय उत्पीड़न के साथ उनका सामाजिक आर्थिक स्तर में कोई बदलाव नहीं आ रहा. सवर्ण तो इस्तेमाल कर रहा है. इसलिये दलित समाज आज एकजुट हो रहा है, जो सवर्णों को खलने लगा है.
सवर्णों के दिमाग में आज भी वही वहम है कि दलितों के करीब आकर उनका इस्तेमाल कर सकते हैं. पहले जहां सवर्ण दलितों के घर सिर्फ जाते थे लेकिन पानी तक नहीं छूते थे. धीरे-धीरे पानी पीने लगे. यह दिखाने लगे कि हम छुआछूत नहीं मानते. हम सब बराबर हैं. लेकिन दलित और जागरूक होता गया और सवर्णों की यह चाल भी फीकी पड़ने लगी. फिर दलितों के घर खाना खाने का नाटक करने लगे. जिस दलित के घर इन्हें खाना होता है, पहले उसका चुनाव करते हैं. उस दलित परिवार को बताते हैं कि किस दिन वह खाने आ रहा है. जिस दिन खाने आना होता है, उस दिन सवर्ण नेता अपने कुछ लोगों से खाने की सामग्री भिजवाता है और अपनी निगरानी में ही खाना बनवाता है. पानी अपना और थाली सहित सभी बर्तन नए होते हैं. इस पूरी घटना की जानकारी मीडिया को पहले ही दे दी जाती है, ताकि अगले दिन लोग अख़बार भी पढ़ कर जाने कि नेताजी दलित के घर खाये हैं. सवर्ण नेताओं की यह नौटंकी भी ज्यादा दिन नहीं चली. दलित भी बिदक गया, तो सवर्ण नेता दलितों के घर सोने लगे. चारपाई भले दलित की होती है, लेकिन उस पर बिस्तर नेताजी के अपने सवर्ण का होता है.
दरअसल, सवर्ण हज़ारों सालों से इन्ही पैंतरों की बदौलत दलितों को अपनी मुट्ठी में करते आ रहे हैं और सफल भी हुए. उनकी मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है और वह इससे उबर ही नहीं पा रहे हैं. सवर्णों का दिल और दिमाग यह मानने को तैयार ही नहीं है कि दलित गुलाम कौम नहीं, बल्कि शासक कौम है. सवर्ण इस बात को पचा नहीं पा रहे कि जिन दलितों पर हम विदेशी होकर भी सैकड़ों साल तक राज किये, वही दलित उनपर राज करने के लिए उतावला है. इसलिए सवर्ण खुद में छटपटा रहा है, बौखला रहा है. साम दाम दंड भेद सब अपना रहा है. चूँकि सामन्तवादी सोच का कीड़ा बचपन में ही सवर्णों के दिमाग में डाल दिया गया है. इसलिए आज भी वह दलितों के घर जाकर आंसू बहाने की नौटंकी से बाज नहीं आ रहा है. उसे लगता है कि इससे दलित समाज पिघल जायेगा, लेकिन नौटंकी ज्यादा हो चुकी है. इसलिए अब इनकी यह चाल भी फेल हो चली है.
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