वह 90 का दशक था। मान्यवर कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी देश भर में तेजी से पैर पसार रही थी। दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में बसपा की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी। तभी सन् 1992 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। पंजाब, बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम का होम स्टेट यानी गृह राज्य था। सबकी निगाहे बसपा पर टिक गई थी। पंजाब में सत्ता में रहने वाले राजनैतिक दल परेशान थे, कि जिस कांशीराम ने देश भर में तहलका मचाया हुआ है, वह अपने होम स्टेट क्या करेंगे। इस विधानसभा चुनाव में बसपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटें जीती। उसके 32 उम्मीदवार दूसरे और 40 उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे। और इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत था 16.3 प्रतिशत। बहुजन समाज पार्टी के इस शानदार प्रदर्शन से प्रदेश की राजनीति में हंगामा मच गया था।
पंजाब की सियासत में बसपा का कद बढ़ा तो प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दल बसपा से दोस्ती करने को बेचैन हो गए। तब 1996 लोकसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन का हाथ बढ़ाया, और मान्यवर कांशीराम ने इसको स्वीकर कर लिया। अकाली दल और बसपा ने मिलकर यह चुनाव लड़ा और जो नतीजे आएं उसने बसपा के कद को और बढ़ा दिया। प्रदेश की 13 लोकसभा सीटों में से इस गठबंधन ने 11 सीटों पर जीत हासिल कर ली।
बहुजन समाज पंजाब में बसपा की सरकार बनने का सपना देखने लगा। वजह थी प्रदेश की 32 फीसदी दलित आबादी, जिसके बीच बसपा का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। लेकिन बसपा न तो प्रदेश में सरकार बना पाई और न ही वहां सत्ता की चाभी ले पाई, जैसा कि उसने उत्तर प्रदेश में किया था। और वह सपना अब भी सपना बना हुआ है, लेकिन लगता है कि अगले साल पंजाब विधानसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।
2022 में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया है। कृषि बिल पर भाजपा के रूख के कारण उससे गठबंधन तोड़ने वाली अकाली दल 25 सालों बाद फिर से सत्ता पाने के लिए बसपा के साथ एक मंच पर आ गई है। गठबंधन के बाद पंजाब की 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर और अकाली दल बाकी की 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इस गठबंधन के पीछे पंजाब का जातीय समीकरण है। प्रदेश में 33 प्रतिशत दलित वोट ही यह तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। लेकिन पंजाब के दलित समाज का इतिहास है कि वो कभी किसी एक पार्टी के पीछे आंख मूंद कर नहीं चला है। इस समीकरण को समझने के लिए पंजाब को समझना होगा। पंजाब दरअसल तीन हिस्से में बंटा हुआ है। माझा, मालवा और दोआब। इन्हीं इलाकों में प्रदेश के सभी प्रमुख जिले आते हैं।
पंजाब में कुल 57.69 फीसदी सिख, 38.59 फीसदी हिंदू और 1.9 फीसदी मुस्लिम हैं। 22 जिलों में से 18 जिलों में सिख बहुसंख्यक हैं। यहां लगभग दो करोड़ वोटर हैं। जहां तक प्रदेश में 33 फीसदी दलित आबादी का सवाल है तो इस समाज में रविदासी और वाल्मीकि दो बड़े वर्ग हैं। देहात में रहने वाले दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा डेरों से जुड़ा हुआ है। ऐसे में चुनाव के वक्त ये डेरे अहम भूमिका निभाते हैं। जबकि दोआबा बेल्ट में रहने वाले दलित समाज में ज्यादातर परिवारों के सदस्य NRI हैं। इनका असर फगवाड़ा, जालंधर और लुधियाना के कई हिस्सों में है।
साल 1992 में भले ही प्रदेश का दलित वोटर मजबूती से बसपा के साथ आया था, लेकिन विडंबना यह रही कि यह पूरी तरह से बसपा के पीछे एकजुट नहीं हो पाया। धीरे-धीरे बसपा प्रदेश में उस जनाधार को भी खोती गई, जो 90 के दशक में उसके साथ खड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा सभी 13 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, पर वह कोई सीट नहीं जीत सकी। उसे 2.63 लाख वोट मिले थे। तो वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा पंजाब लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर के चुनाव में उतरी थी और तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में बसपा का वोट एक प्रतिशत बढ़कर 3.5 प्रतिशत तक पहुंचा, लेकिन फिर से उसे कोई सीट नहीं मिली। 2014 में 2.63 लाख वोट से बढ़कर 2019 चुनाव में बसपा को 4.79 लाख वोट मिले।
वहीं दूसरी ओर विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कुल 111 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन उसे सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके। बसपा और उसके समर्थकों के लिए बुरी खबर यह रही कि पार्टी किसी सीट पर लड़ाई में भी नहीं रही।
लेकिन शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के बाद बसपा फिर से प्रदेश की राजनीति में मजबूत वापसी की उम्मीद लगाए है। हालांकि पंजाब चुनाव में इस बार अहम मुद्दा किसान आंदोलन और कृषि कानून रहने की उम्मीद है। लेकिन प्रदेश में जिस तरह से सभी दल दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में जुटे हैं, उसमें बसपा के निश्चित तौर पर एक मजबूत ताकत बन कर उभरने की उम्मीद है। इस गठबंधन की घोषणा करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने प्रदेश में सरकार बनने पर दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, उनका यह दांव कितना चलता है, यह चुनावी नतीजे बताएंगे।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।