फिदेल कास्त्रो ने 1992 में कहा था, “एक महत्वपूर्ण जैविक प्रजाति– मानव जाति – के सामने अपने प्राकृतिक वास-स्थान के तीव्र और क्रमशः बढ़ते विनाश के कारण विलुप्त होने का खतरा है… मानव जाति के सामने आज एक अनिश्चित भविष्य मुंह बाये खड़ा है, जिसके बारे में यदि हम समय रहते ठोस और प्रभावी कदम उठाने में असफल रहते हैं, तो धनी और विकसित देशों की जनता भी, दुनिया की गरीब जनता के साथ मिलकर एक ही जमीन पर खड़ी, अपने अस्तित्व के खतरे और अंधकारमय भविष्य से जूझ रही होगी।”
“अगर हम ऐसा नहीं करते ( अकूत मुनाफे की लालच और उपभोक्तावादी जीवन-शैली नहीं छोड़ते) तो संसार की सबसे अद्भुत रचना मानव जाति गायब हो जाएगी…इस धरती को मानवता की समाधि न बनायें, इसमें हम समर्थ हैं।आइए इस धरती को स्वर्ग बनाएं, जीवन का, शान्ति का स्वर्ग,सम्पूर्ण मानवता के लिए, शांति और भाईचारा के लिए । इसके लिए हमें अपनी स्वार्थपरता छोड़नी पड़ेगी।”
ह्यूगो शावेज ( 2009)
मानव सहित सभी प्रजातियों तथा स्वयं धरती का अस्तित्व खतरे में है। शायद ही कोई तथ्यों से अवगत व्यक्ति इससे इंकार करे। तमाम आनाकानी के बावजूद चीखते तथ्यों तथा भयावह प्राकृतिक आपदाओं एंव विध्वंसों ने दुनिया को तथ्य को स्वीकार करने के लिए इस कदर बाध्य कर दिया है कि वे इस हकीकत से इंकार न कर सके। इस स्थिति से निपटने के लिए, कई अंंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और संधि-समझौते हो चुके हैं। ये सम्मेलन या कार्य-योजनाएं दुनिया भर के पर्यावरणविदों तथा मनुष्य एवं धरती को प्यार करने वाले लोगों की उम्मीदों का केन्द्र रहे हैं, क्योंकि इस सम्मेलन की सफलता या असफलता पर ही मानव जाति के अस्तित्व का दारोमदार टिका हुआ था। इसी से यह तय होना था कि आने वाले वर्षों या सदियों में कौन से देश का अस्तित्व बचेगा या कौन सा देश समुद्र में समा जायेगा या किस देश का कितना हिस्सा समुद्र में डूब जायेगा, कितने देश या क्षेत्र ऐसे होगें, जिनका नामो-निशान ही नहीं बचेगा। कितनी प्रजातियां कब विलुप्त हो जाएंगी। मानव प्रजाति का अस्तित्व कितने दिनों तक कायम रहेगा। समुद्री तूफान,सुनामी या अतिशय बारिश किन क्षेत्रों को तबाह कर देगी, किस पैमाने पर जान-माल की क्षति होगी। कितने इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगे। बाढ़, सूखा या असमय बारिश कितने लोगों पर किस कदर कहर ढायेगी।
हमें प्रकृति के प्रति अपने नजरिये में बदलाव लाना होगा तथा उपभोक्तावादी जीवन शैली का परित्याग करना होगा। इसी चीज को रेखांकित करते हुए कोपनहेगन सम्मेलन(2009 में ह्यूगो शावेज ने कहा था कि अगर हम ऐसा नहीं करते तो संसार की सबसे अद्भुत रचना मानव जाति गायब हो जाएगी…इस धरती को मानवता की समाधि न बनायें, इसमें हम समर्थ हैं।आइए इस धरती को स्वर्ग बनाएं, जीवन का, शान्ति का स्वर्ग,सम्पूर्ण मानवता के लिए, शांति और भाईचारा के लिए । इसके लिए हमें अपनी स्वार्थपरता छोड़नी पड़ेगी। इसी बात को वर्षों पहले फिदेल कास्त्रो ने कहा था कि स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी और फरेब की हद हो चुकी। जिसे हमें बहुत पहले करना चाहिए था, उसे करने के लिए बहुत देर हो चुकी है। कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज से शब्द उधार लेकर कहें तो एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना बेहद जरूरी है जो प्रकृति के साथ और मानवजाति के बीच आपसी तालमेल के लिए फिर से बहस करे।