कहा जाता है कि क्रिकेट अमीरों का खेल है. शायद इसीलिए भारतीय क्रिकेट में जो गिने चुने दलित खिलाड़ी रहे, वे भी गुमनाम ही रहे. इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा की नई क़िताब ”विदेशी खेल अपने मैदान पर” में उन्होंने क्रिकेट का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण करने की कोशिश की है. इस क़िताब में, बकौल लेखक, भारतीय क्रिकेट के इतिहास के गुमनाम क्रिकेटरों के बारे में पड़ताल की गई है. आज़ादी के बाद शायद तीन यार चार दलितों ने क्रिकेट खेला, लेकिन उन्हें वो शोहरत हासिल नहीं हुई जिसके वे हक़दार थे. सवाल उठता है कि क्या भारतीय क्रिकेट में भी ऊंची जातियों और उच्च वर्गों का ही दबदबा है?
जवाब में इस किताब में रामचंद्र गुहा लिखते हैं, एक बार मैं मुंबई में, दलित गेंदबाज रहे पालवंकर बालू के भतीजे से मिला, जिन्होंने कुछ अनमोल पारिवारिक दस्तावेज मुझे सौंपे. इसमें मराठी में छपा एक संस्मरण भी शामिल था. उन्होंने अपने चाचा और अपने पिता विट्ठल (बालू के छोटे भाई और एक प्रतिभाशाली बल्लेबाज) की यादें भी साझा कीं. इसके बाद तब के एक अग्रणी राष्ट्रवादी अखबार ”बॉम्बे क्रॉनिकल” की माइक्रो फ़िल्में देखते हुए मैंने दोनों भाइयों के निजी संघर्षों पर दिलचस्प सामग्री पाई. ये दोनों भाई अपने समय के अच्छे क्रिकेटर थे, लेकिन दलित पृष्ठभूमि से होने के कारण उन्हें पर्याप्त स्वीकृति नहीं मिली.
इसके बाद मैंने बीआर अंबेडकर के साथ बालू के क़रीबी और जटिल संबंध के बारे में नई और अब तक अनदेखी रिपोर्टें भी पाईं. आख़िरकार बालू इस किताब के केंद्रीय विषय बन गए. वे एक शानदार क्रिकेटर और एक उल्लेखनीय इंसान के रूप में प्रतीक बन जाने वाले भारत के पहले खिलाड़ी थे और 1910 से 1930 के बीच पश्चिमी भारत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दलित हस्ती भी थे. वंचित तबकों से कुछ बेहतरीन क्रिकेटर आए थे. 1947 के बाद शायद तीन या चार दलितों ने भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट खेला, लेकिन कोई भी ख्याति नहीं हासिल कर सका. मुझे यकीन है कि अब तक कोई आदिवासी या उत्तर-पूर्व से कोई भारत के लिए नहीं खेला है. भारतीय टीम में खेल प्रशंसकों में सभी वर्गों और धर्मों के लोग हैं, लेकिन शीर्ष खिलाड़ी व्यापक रूप से शहरों और ऊंची जातियों से आते हैं.
किताब में गुहा कहते हैं, मैंने 1912 से 1945 के बीच बंबई पंचकोणीय प्रतियोगिता (जो पहले चतुष्कोणीय थी) पर एक किताब लिखने की योजना बनाई थी. तब यह रणजी ट्रॉफी से भी अधिक महत्वपूर्ण थी. पहले महान भारतीय टेस्ट क्रिकेटरों– सी.के. नायडू, विजय मर्चेंट, मुश्ताक़ अली, मुहम्मद निसार, अमर सिंह, विजय हजारे, वीनू मांकड़ ने इसमें अपनी निशानियां छोड़ी थीं. मेरी किताब का उद्देश्य एक क्रिकेटीय इतिहास को समग्र रूप में पेश करना था. लेकिन मैं जितना अधिक शोध करता गया, उतना ही मैंने देखा कि चतुष्कोणीय तथा पंचकोणीय प्रतियोगिताएं राजनीति और समाज के साथ आपस में गुंथी हुई थी. इसलिए आखिर में मैंने एक ऐसी किताब लिखी, जिसमें नस्ल, धर्म, जाति और राष्ट्रवाद खुद क्रिकेट जितने ही महत्वपूर्ण थे. कपिल देव से भी महान वीनू मांकड़ थे. गुहा ने जो क़िताब लिखी है वह भारतीय क्रिकेट का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास है, जिसे नस्ल, जाति, धर्म और राष्ट्र की ”प्रधान श्रेणियों” के ज़रिए लिखा गया है. मुझे अच्छा लगेगा अगर कोई बालू और विट्ठल की अवधि के बीतने के बाद खेल पर राज करने वाली चौकड़ी की एक जीवनी लिखे: सीके नायडू, विजय मर्चेंट, विजय हजारे और वीनू मांकड़. ये सभी बेमिसाल क्रिकेटर थे, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच पर बहुत कम अवसर हासिल हुए. नायडू, वीरेंदर सहवाग जैसी महारथ से गेंदबाजों की धुलाई कर सकते थे. मर्चेंट और हजारे, राहुल द्रविड़ के सांचे के श्रेष्ठतम बल्लेबाज थे और वीनू मांकड़ तर्कसंगत रूप से कपिल देव से भी महान हरफनमौला थे. ये प्रथम महान भारतीय क्रिकेटर थे और इस महानता का समुचित आकलन अभी बाकी है.
पेंग्विन से साभार
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